श्रद्धात्रयविभागयोगो नाम सप्तदशोऽध्याय :

संक्षिप्त में वर्णन।

भगवद् गीता के 17वें अध्याय में भगवान कृष्ण ने श्रद्धा के तीन प्रकार – सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक श्रद्धा के विषय में बताया है। वे यह बताते हैं कि सात्त्विक श्रद्धा उसी को आदर्श मानती है जो सच्चा, शुद्ध, और दिव्य होता है। राजसिक श्रद्धा में व्यक्ति अपनी इच्छाओं के अनुसार कार्य करता है, जबकि तामसिक श्रद्धा में उसकी बुद्धि हरी भरी होती है और वह गलत धारणाओं में पड़ जाता है।

इस अध्याय में श्रद्धा के महत्त्व को बताया गया है और यह भी समझाया गया है कि अच्छी श्रद्धा कैसे हमारे कार्यों को प्रेरित करती है। भगवान ने यहां बताया है कि जीवन में श्रद्धा की महत्ता होती है और हमें अच्छी श्रद्धा का अनुसरण करना चाहिए। श्रद्धा व्यक्ति के अंतरात्मा को समझने और अनुभव करने में सहायता करती है और उसे अच्छे और सच्चे कर्मों में प्रेरित करती है।

इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने श्रद्धा के माध्यम से ध्यान और तपस्या का महत्त्व बताया है। वे यह समझाते हैं कि श्रद्धा से ध्यान और तपस्या को समर्पित करके हम स्वयं को शुद्ध कर सकते हैं और अपने आत्मा को परमात्मा के प्रति समर्पित कर सकते हैं। इससे हमारे जीवन में आनंद और शांति का अनुभव होता है और हम अच्छे कर्मों में लगे रहते हैं।

भागवत गीता के 17वें अध्याय को यथार्थ रूप में मूल स्वरूप में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। यहां पर आपको गीता के 17वें अध्याय का संस्कृत और उसका हिंदी अनुवाद मिलेगा। 

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